जानते हो....!
उस पहाड़ी नदी से जब इस बार अकेली गुजरी तो क्या बोली वो मुझ से
वो कहा है जिसके संग घण्टो बैठी रहती
मुझ पर पैर डाले !
मैं मौन वहाँ से गुजर गई
थोड़ी आगे बढ़ी ही थी कि
सरसो मेरे कदमों मे लिपटते हुए
इठलाती हुए बोली
इस बार नहीं सजाओगी मुझे अपनी जुल्फों में !
और वो ऊँचे ऊँचे चीड़
वो तो झुक के नीचे आगये
कि,अब तो झूला डाल लो
तब तुमको तंग करते और भी ऊँचे हो जाया करते
वो पहाड़ की चढ़ाई...
बड़ी मायूस होकर मुझ से बोली
कहाँ है वो
जो अपनी पीठ पर बिठा के तुमको मुझ से पार करवाता था !
वो बुरांश वो तो मुझ पर बरसे ही जा रहे थे
कि, अब तो तोड़ लो हमें डाली से !
देखो ना सब कुछ तो बदल रहा था
मेरे लिए...
सिवाय तुम्हारे
मेरे लिए...
Monday, 25 December 2017
बदलना
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