आज चाँद आसमान में कुछ इतना भर है
जितनी मैं हूँ
तुम्हारे भीतर !
चाँद अमावस का
डर
डर को इतने करीब से देखना
ख़ौपनाख !
वो दो कदम
जो सरासर
बढ़ते मेरी ओर
मैं !
निश्हाय
बेबस
हताश
बैठ एक कोने में
देखती
उन क़दमों को
बढ़ते स्वम् की ओर !
एक हाथ बढ़ता है
मुझे नोंचने को
मेरी आह
चीख़
जिसे वो दूसरे हाथ से यूँ दबा डालता
मानो शोर में निकल रही हो तमाम चीखे
गुमनाम !
तुम्हारे साथ मन से थी
सरीर को कही दूर छोड़
किसी कोने में दफ़न कर
इस मांस के चीथड़े को
तुम्हारे संग हो जाती थी
लेकिन अब
केवल सरीर से हर जगह मजूद होती हूँ
मन तो रह गया कही
पीछे बहुत पीछे
कही छूट सा गया !