"हम उड़े थे जहां से उड़ान भर कर
लौट आये है एक बार वहीं
फिर बसाने अपना बसेरा !!!"
आखिर कितनी दूर तक उड़ेंगे एक दिन तो अपने बसेरे पर लौट ही आना होगा न ! आज मेरे गाँव के प्रत्येक बूढ़े व्यक्ति के मन मे, आँखों मे यही भाव स्पष्ट रूप से झलकता है। उनका निराश मन एक उम्मीद बाँधे हुए है कि कभी तो थमेगा यह पलायन ! कभी तो लौटेंगे उनके बच्चे महानगरों से उन कच्चे पाथरों के घरों मे जो अब एक मकान बन के रह गए हैं!
आज पहाड़ का प्रत्येक मकान खाली हैं, उनमें रहते है तो सिर्फ दो बूढ़े माता -पिता। नौकरी एवं पढ़ाई की तलाश मे हो रहा यह पलायन पहाड़ के हर गाँव को खाली कर चूका है।नौबत तो यहां तक आ गई है कि एक व्यक्ति एक गाँव मे रहने को अभिशप्त है।स्कूल हैं लेकिन उनमें पड़ने वाले बच्चे नहीँ।
पहाड़ कहते ही हमारे समक्ष वो तमाम खूबसूरत विशिष्टताएं आ उभरती है जिन्हें ये पहाड़ अपने भीतर समेटे हुए हैं।वे ऊँचे-ऊँचे देवदारु के व्रक्ष ,विशाल चीड़ के पेड़,वे खूबसूरत बुराँश के पुष्प जो पहाड़ो को दुल्हन की भाँती सजाए हुए है।इन तमाम विशिष्टताओं के बावजूद भी आज वहाँ कोई रहना नहीं चाहता ! आज जब हम अपने अतीत की तरफ देखते हैं टी गर्व होता है कि हम पहाड़ की इन खूबसूरत वादियों का एक छोटा सा पहाड़ है,जिसकी भूमि पर खुमानी ,आड़ू, पुलम, बेडू, एवं काफल के फल अब नहीं पकेंगे बल्कि महानगरों की विलासिता के बीज ही फूटेंगे।
आज हमें अपने अतीत पर गर्व तो है कि हमारी जननी जन्मभूमि पहाड़ हैं, लेकिन जब हम अपने वर्तमान और भविष्य की ओर देखते है तो महसूस होता है कि हम किस प्रकार अपने अतीत को तिल-तिल मरने को छोड़ आये हैं। पुरखों के बने मकानों को दीमकों के लिए छोड़ आये हैं। अब पहाड़ के हर गाँव का प्रत्येक घर केवल उन बूढ़ों के लिए होकर रह गया है, जिन्होंने अपना खून पसीना एक कर। ऊँचे-ऊँचे पहाडों से एक एक पत्थर कंकड़ से एक आशियाना बनाया ताकि उन आलिशान आशियानों मे उनकी आने वाली पीढ़ियां बिना किसी तकलीफ से रह सके।लेकिन उनको कहाँ मालूम था इन पीढ़ियों को पहाड़ का वो आलीशान आशियाना रास न आकर महानगरों की ये संकरी गलियां भा जाएँगी।
एक छोटा सा किस्सा ! इस बार जब गाँव गई थी। तो एक बूढ़े बूबू (दादाजी) जी ने मुझसे कहा "चेली यौ गौ में उदासी लागू ,क्वे न रोन यां ,मैश (लोग) न कै बाकि पेड़ छन"।(बेटी इस गाँव में उदासी लगती है, यहां कोई नहीं रहता लोगों से ज्यादा पेड़ है।)एक एक गाँव में कम से कम 25-30 घर हैं, जिनमें हर शाम केवल 5-10 घरों में ही उजाला रहता है, बत्ती जलती हैं।बाकियों में बड़े -बड़े ताले लटके हुए है। उन आलिशान घरों के विशाल आँगन में खेलने के लिए बच्चे ही नहीँ हैं।बूढ़े माता -पिता अपने बच्चों के गिल्ली डंडा,गेंद-बल्ले अपनी पूँजी की भाँति अपने सीने से चिपकाए हुए है,केवल इस आस से कि कभी तो उनके बच्चे लौटेंगे अपने घरौंदे में,और खेलेंगे गिल्ली-डंडा ,गेंद -बल्ला।
मैंने बहुत ही करीब से देखा है उन बूढ़ो की आँखों में उस बेचैनी ,बेबसी को जिसके कारण वे अकेले तिल-तिल मरने को मजबूर हैं।उन बड़े -बड़े पथरों के मकानों के भीतर एक अजीब सी उदासी पसरी हुई है।जब यहां कुछ ही दिनों के लिए लौटते है तो क्षण भर के लिए ही सही उनके पास बैठने से उनकी आँखों में चमक दौड़ने लगती है जैसे उनकी आँखें सदियों से किसी अपने के लौटने का इंतज़ार कर रही हो।
यदि वर्तमान समय में भारत के लगभग सभी गाँवों की स्तिथि पर गौर किया जाये तो उनकी दिन-प्रतिदिन बदलती सूरत का सही अंदाजा लग जाएगा।बाजार के लिए कहा जाने वाला एवं पड़े-लिखे लोगों द्वारा पूर्ण रूप से मान लिया जाने वाला यह आधुनिक युग एवं इसमें भागती -दौड़ती जिंदगी पूरी जीवन पद्दति में ही बदलाव ला चुकी है। अब के समय में कोई व्यक्ति,यदि मै कोई व्यक्ति कह रही हूँ तो सांकेतिक रूप से युवाओं को कह रही हूँ जो गाँव में अब नहीं रहना चाह रहे हैँ।गाँव अब उनको रास नहीं आ रहे है!आये भी तो क्यों ?
उनके द्वारा ऐसा माना जाता है कि गावों में कुछ नहीं बचा है। नौकरी की तलाश एवं पढ़ाई की इच्छा युवाओं के एक बड़े समूह को गावों से महानगरों की तरफ पलायन करने को मजबूर कर रही है।गावों में अब कोई नहीं रहना चाहता ।हर कोई एक अमीर इंसान बनना चाहता है, और अमीर इंसान की पहली इच्छा एवं प्रमाण यही है कि उसका घर शहर में हो।
इस कारण शहर की जनसंख्या दिन -प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।और गावों में कुछ बच नहीं रहा हैं।शहरों में बढ़ती जनसँख्या का नुकसान भी है, पर्यावरण प्रदूषित ही रहा है क्योंकि शहरों की आबादी बढ़ेगी तो वहा का घनत्व भी बढ़ेगा।नए घर बनाए जायेंगे ,पेड़ो का कटान होगा और भी तमाम तरह के पहलू है जो पर्यावरण को नुकसान पहुचाएंगे । शहरों में रहने वाले लोगों की औसत आयु गाँवों में रहने वाले लोगों की औसत आयु से बहुत कम है।इन सब का प्रमुख कारण पर्यावरण है। लेकिन नहीं पता क्यों फिर भी लोगों को शहरी जीवन ही रास आ रहा है। इन सब वजहों के केंद्र में यदि पैसे को रखकर देखे तो इस स्तिथि को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। गावों में यदि कोई मजदूर काम करता है तो उसे एक दिन की मजदूरी सौ रूपये से एक सौ पचास रूपये तक ही प्राप्त होती है।वही मजदूर यदि किसी शहर में या कारखाने में काम करता है तो उसे एक दिन की मजदूरी तीन सौ से चार सौ तक दी जाती हैं।ज्यादा पैसा कमाने का स्वार्थ एक मजदूर को गाँव से शहर की ओर खींच लाता है, एक तरह से कहें टी स्वार्थ ही पलायन का मुख्य कारण है।दूसरी ओर, पढ़ने वाले युवा साथियों की ओर ध्यान दे तो युवा वर्ग गाँव से शहर की ओर इसलिए आ रहे है कि उन्हें उच्च एवं बेहतर शिक्षण संस्थान की तलाश है जो गाँवों में संभव नहीं हैं। भारत देश विविधताओं का देश है इसमें तमाम तरह की परम्परा एवं संस्कृति के लोग रहते हैं और इन सभी लोगों को भारत अपने में समाहित किए हुए है और आगे बढ़ रहा है।भारत गाँवों का देश हैं और भारत गाँवों में बसता है, इस महात्मा गांधी ने कहा है।पलायन की स्तिथि से निजात पाने के लिए सरकार की मुख्य भूमिका होनी चाहिए। गाँवों में उन सब सुविधाओं की व्यवस्था कराई जाए जिनके लालच में गाँवों से लोग शहर की ओर मुख कर रहे हैं।हर 5 से 6 गाँवों के भीतर एक उच्च शिक्षण संस्थान हो जहां से पढ़ने वाले युवा साथियों को रोजगार की तलाश में इधर उधर भटकना न पड़े।
सचमुच यदि भारत को बचाना है, उसके सौंदर्य को बनाए रखना है तो गाँवों को बचाना होगा, हो रहे पलायन को रोकना होगा, इन व्यक्तियों से गाँव की शोभा हैं और गाँव की शोभा में देश की सोभा निहित हैं !