पहाड़ की तलछटों में बहती एक नदी हूँ मैं,
और तुम,
उन तलछटों में बहते,
ऊँचे पर्वतों से गिरते हुए झरनें।
जिसे नदी अंततः खुद में ही समाहित कर लेती है।
Monday, 28 November 2016
एक नदी सी में !
Monday, 21 November 2016
रिसना !
मैं रिसती गयी तुम्हारे भीतर
धीरे धीरे !
आकाश के उस चाँद की तरह
जो,
घटता रहता है,
पूर्णिमा के बाद !!!
Wednesday, 16 November 2016
फिर वहीँ !
न जाने कौन सी दुनिया में गुम
वह बैठी थी,
उस बस की शीट पर !
एक अंजान सा सपना आँखों में उसके
निरन्तर गोते लगा रहा था !
उसे महसूस हुआ वो बरसों पुराना
एहसास !
कोई अपना सा
जिसका मोह उसे खुद की ओर खींच रहा था !
उसके कंधे पे सर टिकाये !
आँख बंद किये
उसके स्पर्श का अहसास लेती।
उस बगल की शीट पर
लगा जैसे वही बैठा है !
एकाएक बस का झटका लगा
जोर से
उसका सर जा टकराया
अपनी शीट से
आँख खुली
और देखा
कोई न था आसपास उसके
वो बगल वाली शीट भी खाली थी
फिर आवाज़ एक सुनाई दी
चलिये,मैडम दिलशाद गार्डन मेट्रो स्टेशन आ गया !
उतरिये !
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